Universalism is to eliminate pain and fill our lives with happiness. Founding words of Universalism are Wisdom, Love and Duty. In this world, there is no one who is not suffering from either pain or who is not continuously trying to work for happiness in life. These pains and pleasures could be physical, emotional, mental, financial or spiritual and they could be personal, professional or social. There are mainly 3 reasons for our sufferings or not getting happiness.
First basic reason for suffering is lack of wisdom. Ample information and knowledge is available at touch of finger but what we lack is wisdom i.e. an ability to take right decisions at the right time, in right circumstances and with the right people. It is easy to choose between right and wrong. But it is very difficult to choose between right and more right or wrong and more wrong. Our greed, selfishness, jealousy and fears do not allow us to think rationally and act wisely.
Second basic cause of our suffering is not doing our duty. In life we get many roles such as son, daughter, parent, spouse, employee, employer, colleague, neighbor, citizen, friend etc. However, most of the times we fail to understand our duty as per our role. We decide our duty considering our own benefits/convenience rather than as per our role. Over-doing any duty can be as harmful as not doing our duty. Sometimes we decide our duty based on the response received from the other party. Nevertheless, doing your duty irrespective of the situation is the key to happiness.
Third but most important basic reason for our suffering is lack of love. Due to greed, jealousy, selfishness and fear, we have forgotten love. We love only those people whom we think can fulfill our expectations or we have hope that our expectations will be fulfilled in nearby future. Giving unconditional love is nowhere seen. It might not be possible to love all but at least we can take a vow that we will not hate anyone. The person whom we hate occupies more rent free space in our mind and thoughts as compared to person we love.
Among wisdom, duty and love, wisdom is of utmost importance because quality of our duty and love can.
यूनिवर्सलिज़म क्या हैं?
इस संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसने कभी दुँख का अनुभव नहीं किया हैंओर हर व्यक्ति हर पल प्रयत्नशील रहता है कि उसे सुख प्राप्त होता रहे। ये सुख और दुख शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, आत्मिक या ओर भी किसीप्रकार के हो सकते है।
ये सुख और दुख निजी, व्यवसायिक या सार्वजनिक जीवन के बारे में हो सकते है। सब धर्मों एवं विचारधाराओं का अध्ययन करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि हमारे हर सुख एवं दुख के ३ मूल कारण है। इस सब मंथन एवं चिंतन से जो कुछ समझ आया उसमें नया कुछ भी नहीं है या ऐसा कुछ नहीं है जिसे आप नहीं जानते है। लेकिन हम रोज की आपाधापी मे इन मूलकारणों को भुल जाते है। किसी भी समस्या का समाधान तब संभव हो जाता है जब हमें उसके मूल कारण पता हो। अब तक के चिंतन का सारांश इस प्रकार है।
सबसे पहला कारण है ज्ञान, ज्ञान कि कमी। सिर्फ जानकारी होना ज्ञान नहीं हैं। आज के युग में हर प्रकार की जानकारी गुगल पर उपलब्ध हैं लेकिन हम फिर भी समय, व्यक्ति एवं परिस्तिथि के अनुसार उचित निर्णय नहीं कर पाते हैं। हमारे स्वार्थ, ईर्ष्या, भय आदि हमारी बुद्धि को कुंठित कर देते है एवं हम अन्यायपूर्ण व्यवहार करने लग जाते हैं। सही एवं ग़लत के बीच निर्णय करना तो फिर भी आसान होता हैं लेकिन सही एवं ज़्यादा सही तथा ग़लत एवं ज़्यादा ग़लत के बीच निर्णय अत्यंत कठिन होता है
व एसे निर्णय के लिये उच्च कोटि के ज्ञान की आवश्यकता होती हैं। यह बुद्धिमत्ता हमें मिलती है हमारे संस्कारो, शिक्षा एवं अनुभव से।
दूसरा मूल कारण है हमारे कर्तव्य का ज्ञान। जीवन एक रंगमंच है व हर पल हमें अलग अलग तरह की भूमिका निभानी पड़ती है। अकसर हम हमारी सही भूमिका पहचानने में विफल हो जाते है एवं अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर पाते है या फिर हम एसे कर्म भी कर लेते है जो हमारे
कर्तव्य की सीमा से बाहर है। हमारी अज्ञानता हमें हमारे सही कर्तव्य को पहचानने में बाधक हो जाती है। कर्तव्य सेअधिक करना भी उतना ही दुखदायी बनाता है जितना कि कर्तव्य से कम करना।कई बार हमें हमारे कर्तव्य की जानकारी होती है लेकिन हम सिर्फ इसलिये अपने कर्तव्य का पालन
नहीं करते है कि सामने वाला व्यक्ति अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर रहा है। हमें हर परिस्तिथि मे अपने कर्तव्य को पहचान कर अपने कर्तव्य का पालन करते रहना चाहिये।
तीसरा लेकिन बहुत ही महत्वपूर्ण कारण है प्रेम की महत्ता। स्वार्थ, ईर्ष्या एवं भयने हमारे जीवन से प्रेम को लगभग समाप्त ही कर दिया है। निस्वार्थ प्रेम तो
देखने को ही नहीं मिलता हैं। हम प्रेम सिर्फ उसे ही देते है जो हमारी अपेक्षाएँ एवं आकांक्षाएँ पुरी करता है या पुरी करने की आशाएँ दिलाता है। अगर प्रेम करना कठिन है तो हम इतना तो कर ही सकते है कि किसी से नफ़रत या घ्रणा न करे।जब हम किसी को नापसंद करते है तो वह व्यक्ति हमारे मन एवं मस्तिष्क मेंज़्यादा जगह बना लेता है।
प्रेम, ज्ञान एवं कर्म में ज्ञान सर्वोपरी है क्योंकि प्रेम एवं कर्म कि उत्तमता ज्ञान कि उत्तमता से बेहतर नहीं हो सकती। अगर आप इस बात से सहमत है तो आज
शपथ ले कि:
मैं सर्वशक्तिमान को साक्षी मान कर शपथ लेता/लेती हुँ कि:
१) मैं निरंतर अपने ज्ञान मे वृद्धि करुंगा/करुंगी।
२) मैं हर परिस्थिति में अपने कर्तव्य का पालन करुंगा/करुंगी।
३) मैं हर जीव को निस्वार्थ प्रेम करुंगा/करुंगी।
४) मैं हमेशा इन सिद्धांतों का प्रचार करुंगा/करुंगी।
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